भरत अग्रवाल, चंडीगढ़ दिनभर: मैंने कांग्रेस को ज्वॉइन नहीं किया, बल्कि मैं कांग्रेस में पैदा हुआ हूं। देश की राजनीति के एक पुराने और अनुभवी चेहरे, पूर्व केंद्रीय मंत्री और चंडीगढ़ से चार बार सांसद रह चुके पवन कुमार बंसल जब यह बात कहते हैं, तो उनके शब्दों में केवल गर्व ही नहीं, बल्कि एक गहरी आत्मीयता, लंबा संघर्ष और सच्ची निष्ठा की झलक मिलती है। पवन बंसल याद करते हैं कि वर्ष 1952 का वह समय था जब वह केवल चार साल के थे। तपेमंडी के संकरे गलियों में अपने दोस्तों के साथ मिलकर उन्होंने पहला नारा लगाया था कि पल्ला मार के बुझा दे दिया, वोट पायो कांग्रेस
नूं। यह नारा उस समय केवल बच्चों की शरारत नहीं थी, बल्कि एक राजनीतिक चेतना का पहला बीज था, जो वर्षों बाद भारतीय संसद में जाकर एक विशाल वृक्ष बन गया। बंसल बताते हैं, कांग्रेस मेरे लिए एक पार्टी नहीं, एक संस्कार है, जो
मुझे बचपन से मिला। मेरे पिता एक सामाजिक कार्यकर्ता थे और उनके साथ रहकर मैंने जनसेवा की बुनियादी बातें सीखी।
बंसल के अनुसार कॉलेज के दिनों में चुनाव जीतना बेहद चुनौतीपूर्ण होता था। उन्होंने कहा, यह कहना गलत नहीं होगा कि उस दौर में भी राजनीति में रणनीति, लोकप्रियता और टीम मैनेजमेंट जरूरी थे। हालांकि मैं यह नहीं कहूंगा कि उसमें बदमाशी होती थी, लेकिन मुकाबला काफी दिलचस्प और कड़ा होता था। उनका पहला राजनीतिक अनुभव कॉलेज यूनियन से शुरू हुआ, जहां उन्होंने छात्र राजनीति में हिस्सा लिया और जनसमर्थन से जीत दर्ज की। इसके बाद वे चंडीगढ़ यूथ कांग्रेस में जनरल सेक्रेटरी बनाए गए और फिर प्रेजिड़ेंट का जिम्मा भी उन्हें सौंपा गया। बंसल ने बताया कि जब मुझे यूथ कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया, तो मैंने शुरुआत में इनकार कर दिया था। लेकिन एक दोस्त ने मुझे समझाया प्रेजिड़ेंट, प्रेजिड़ेंट होता है। बंसल 1964 में चंडीगढ़ आए थे। वे बताते हैं, तब का चंडीगढ़ एकदम नया था। मध्य मार्ग सुनसान रहता था।
एक शांत और खुला शहर था। उसी शहर में उन्होंने अपने सपनों की नींव रखी, और कुछ वर्षों में यही चंडीगढ़ उनकी
राजनीतिक पहचान बन गया। बंसल ने कुल आठ बार चंडीगढ़ से लोकसभा चुनाव लड़ा, जिनमें से चार बार जीत हासिल की। वे चंडीगढ़ के पहले ऐसे सांसद बने जिन्होंने लगातार तीन बार जीत (हैट्रिक) दर्ज की। यह मेरे राजनीतिक जीवन का महत्वपूर्ण पड़ाव था। चंडीगढ़ के लोगों ने मुझ पर विश्वास किया और मैं कोशिश करता रहा कि उस भरोसे को कायम रखूं। सांसद रहने के बाद उन्हें कैबिनेट मंत्री भी बनाया गया। बंसल बताते हैं कि जब उन्हें राज्यसभा का सदस्य बनाया गया था, तब उन्हें खुद को यकीन नहीं था कि ऐसा होगा। यह मेरे लिए बहुत बड़ी उपलब्धि थी। और इसका श्रेय मैं राजीव गांधी जी को देता हूं ।
पंजाब की राजनीति में भी निभाई अहम भूमिका: बंसल का राजनीतिक सफर केवल चंडीगढ़ तक सीमित नहीं रहा। उन्हें पंजाब यूथ कांग्रेस का अध्यक्ष भी बनाया गया। पंजाब में उस समय कांग्रेस मुश्किल दौर से गुजर रही थी, लेकिन बंसल ने डटकर पार्टी के लिए काम किया। बसंल बताते हैं कि मैंने कांग्रेस के लिए हर वह काम किया जो एक सच्चा कार्यकर्ता करता है, चाहे वह जमीनी स्तर पर कार्य हो, या नीति-निर्माण में भागीदारी।
जब टिकट नहीं मिला, तब भी नहीं छोड़ा कांग्रेस का दामन: बंसल ने बेहद भावनात्मक लहजे में स्वीकार किया कि सांसद चुनाव में टिकट नहीं मिला, जिससे थोड़ा दुख जरूर हुआ। लोगों का कहना था कि टिकट पक्का है, क्योंकि मैंने शहर के लिए ईमानदारी से काम किया है। लेकिन राजनीति में सब कुछ तय नहीं होता। उन्होंने कहा कि प्रियंका गांधी जी के कहने पर मंच साझा किया, लेकिन घर-घर जाकर टिकट की मांग नहीं कर सके। मेरे समर्थकों को लगता था कि मुझे टिकट न मिलना अन्याय है। मैं भी एक इंसान हूं, मुझे भी दुख होता है। लेकिन मैं कांग्रेस के खिलाफ बगावत की सोच भी नहीं सकता।
कांग्रेस मेरी आत्मा में है: बंसल कहते हैं कि राजनीति में टिकट मिलना और न मिलना सामान्य प्रक्रिया है, लेकिन निष्ठा सबसे बड़ा मूल्य है। मुझे जितना भी मौका मिला, मैंने पूरे मन से काम किया और यदि आगे भी पार्टी मुझे बुलाएगी, तो मैं तैयार हूं।
एक सच्चे सिपाही की कहानी: पवन बंसल का जीवन सिर्फ एक राजनेता की कहानी नहीं, बल्कि कांग्रेस के एक सच्चे सिपाही की गाथा है। जो बचपन से लेकर संसद तक कांग्रेस के साथ खड़ा रहा। उनकी कहानी में बचपन का नारा, कॉलेज की चुनौतियां, चंडीगढ़ का विकास, पंजाब की राजनीति, मंत्री पद की जिम्मेदारियां और पार्टी के प्रति अंतहीन वफादारी सभी कुछ शामिल है। इस राजनीतिक सफर को शब्दों में समेटना आसान नहीं, लेकिन यह जरूर कहा जा सकता है कि पवन बंसल सिर्फ नाम नहीं, कांग्रेस की एक परंपरा और निष्ठा का प्रतीक हैं।
नगर निगम बनना बना राजनीतिक नुकसान की वजह: पवन बंसल का कहना है कि चंडीगढ़ नगर निगम की नींव उनके सहयोग से रखी गई थी, लेकिन राजनीति के लिहाज से यह उनके लिए नुकसानदायक साबित हुआ। उन्होंने कहा, नगर निगम चुनावों में जिस उम्मीदवार को टिकट नहीं मिलता था, वह बागी हो जाता था। जो चुनाव जीतते थे, वे अपनी जीत का श्रेय खुद को देते थे, और जो हार जाते थे, वे हार का दोष मेरे सिर मढ़ देते थे।