चंडीगढ़: बीजेपी चंडीगढ़ के दो दिगगज नेताओं के बीच की दूरियां किसी से छु़पी नहीं हैं। एक तरफ वरिष्ठ नेता संजय टंडन तो दूसरी तरफ हैं अरूण सूद।लेकिन स दूरी के बारे में कभी भी किसी नेता ने खुलकर बात नहीं की।
दिनभर न्यूज के पॉलीटिकल एडीटर तरलोचन सिंह और दोनो नेताओं (संजय टंडन और अरूण सूद ) से विशेष इंटरव्यू किया। इस इंटरव्यू में दोनो नेताओं ने अपनी सफाई दी, आखिरकार इस दूरी की वजह क्या हैं? और इसमें उनका कोई कसूर नहीं हैं। आज हम अपने पाठको को इस आर्टीकल के जरीए संजय टंडन और अरूण सूद दोनो की दूरी की वजह सांझा करेगे।
“जब मैं चंडीगढ़ भाजपा का अध्यक्ष था, तो हर चुनाव में हमने जीत दर्ज की – सांसद से लेकर पंचायत तक। लेकिन आज कोई यह नहीं कह सकता कि मैंने कभी किसी की पीठ में छुरा घोंपा। जो किया, निस्वार्थ भाव से किया।” संजय टंडन की आवाज़ में यह गर्व नहीं, बल्कि एक कार्यकर्ता की तड़प थी। 2014 में चंडीगढ़ की लोकसभा सीट पर जब टिकट की बारी आई, तो पार्टी ने किरण खेर को चुना।
संजय टंडन को टिकट नहीं मिली – और शायद यह उनके लिए एक निजी झटका था, लेकिन उन्होंने कभी भी पार्टी के निर्णय पर सवाल नहीं उठाया। “टिकट देना हाईकमान का अधिकार होता है। लेकिन यह कोई नहीं कह सकता कि मैंने अध्यक्ष रहते हुए कोई कसर छोड़ी हो।” जब उनके समर्थक बगावत पर उतारू हो गए थे, तो टंडन ने दृढ़ता से कहा, “अगर पार्टी के खिलाफ कुछ करने की सोच रहे हो, तो तुम्हें मेरे ऊपर से होकर गुजरना होगा।” यह सिर्फ शब्द नहीं थे – यह उस कार्यकर्ता की आत्मा की आवाज़ थी, जो कुर्सी से ज्यादा पार्टी को प्राथमिकता देता है। किरण खेर को बहन माना, उनके परिवार से आत्मीय संबंध रखे।
“मैं ही उन्हें एयरपोर्ट से लेने गया था। जीत के बाद उनके आसपास नया गु्रप बन गया और कुछ दूरियां सी बन गईं, लेकिन मैंने साथ देने में कभी कमी नहीं की।” सत्यपाल जैन का जिक्र करते हुए उनकी आँखों में आदर साफ झलकता है – “चुनाव से पहले उनका आशीर्वाद लिया, मिठाई खिलाई। मतदान के दिन भी बात हुई।” हार के बारे में बात करते हुए टंडन की आवाज़ भर आई, “अगर कार्यकर्ताओं को एक पल के लिए भी लग जाता कि जीत हार में बदल सकती है, तो उनकी मेहनत इसे बदल देती। लेकिन राजनीति में ऐसा ही होता है और आखिर में उन्होंने कहा, “राजनीति में दो तरह के लोग मिलते हैं – एक जो पास होते हैं पर साथ नहीं निभाते, और दूसरे जो दूर होकर भी साथ खड़े रहते हैं।”
“अरुण सूद से उम्मीद थी…”
टंडन कहते हैं, “अरुण सूद मेरे पुराने साथी रहे हैं। जब वे मेयर बने थे, मैं उनके साथ था। चुनाव में उन्हें जागरूक करने की पूरी कोशिश की, लेकिन सांसद चुनाव में उनसे जितनी उम्मीद थी, वे उस पर खरे नहीं उतरे। हालांकि
वे यह भी जोड़ते हैं कि, “उनके घर में चुनाव से कुछ दिन पहले एक हादसा हुआ था, इसलिए मैं कुछ नहीं कह सका। राजनीति में कई बार पास के लोग दूर हो जाते हैं, और दूर के लोग सबसे करीब खड़े दिखते हैं। यही राजनीति है।”