भरत अग्रवाल, चंडीगढ़ दिनभर: नगर निगम में एक बार फिर भ्रष्टाचार और लापरवाही के गंभीर आरोप सामने आए हैं। ठेकेदारों का कहना है कि निगम की शर्तों के मुताबिक उन्हें तय समय में निर्माण कार्य पूरा करना होता है, लेकिन दूसरी ओर निगम खुद पैमेंट करने में सालों लगा देता है। इस दोहरे मापदंड के चलते कई ठेकेदार आर्थिक तंगी और मानसिक तनाव झेल रहे हैं।
ताज़ा मामला जीएस एजेंसी से जुडा है, के मालिक गुरप्रीत सिंह बढहेड़ी ने बताया कि उन्हें सेक्टर 22 में पांच सार्वजनिक शौचालय बनाने का ठेका मिला था। इनमें से एक शौचालय पूरी तरह से बनकर तैयार हो गया है और उसका उद्घाटन खुद नगर निगम के कमिश्नर ने किया था। लेकिन, अफसोस की बात यह है कि उद्घाटन के बाद भी उस प्रोजेक्ट की पेमेंट अभी तक नहीं मिली है। उल्टा, उद्घाटन समारोह का खर्च भी जेब से ही गया।
शास्त्री मार्केट में बन रहा दूसरा टॉयलेट लगभग 60 फीसदी बन चुका है, लेकिन निगम की बेरुखी के कारण इस प्रोजेक्ट का भी काम अधर में लटक गया है। कारण पिछले आठ महीनों से 5 लाख रुपए का बिल निगम में लंबित पड़ा है, जिसे अभी तक पास नहीं किया गया है।

पेमेंट में देरी का बना मज़ाक:
नियमों के अनुसार, जब 25 फीसदी काम पूरा हो जाए तो 25 फीसदी पेमेंट मिलनी चाहिए, और 50 फीसदी पर आधी रकम का भुगतान। लेकिन हकीकत में ठेकेदारों को तब तक इंतज़ार करना पड़ता है जब तक पूरा काम खत्म न हो जाए और तब भी भुगतान की कोई गारंटी नहीं होती।
गुरप्रीत सिंह बताते हैं, “मैंने हाल ही में ताहिल सिंह ढाबे के पास एक शौचालय बनाकर पूरा किया था। उद्घाटन भी हो चुका है, लेकिन आज तक उस काम की एक भी किश्त नहीं मिली। नगर निगम में क्लियरकल स्टाफ बिल पास करने में महीनों नहीं, सालों लगाता है। एक बार बिल पास हो भी जाए, तो पेमेंट के लिए चक्कर लगाते रहो।”
“चहेतों” को तरजीह, बाकियों के साथ भेदभाव:
सूत्रों का कहना है कि निगम में ‘अपनों’ और ‘गैरों’ का साफ भेद किया जाता है। जिन ठेकेदारों के “ऊपर तक” संपर्क हैं, उनके बिल तेजी से पास हो जाते हैं। बाकी ठेकेदार फाइलों के नीचे दबे रहते हैं। क्लर्कल स्टाफ जानबूझकर बिलों में कमियाँ निकालता है या फाइलें रोक लेता है, जिससे ठेकेदार मजबूरन चुप रहकर इंतजार करते हैं या फिर ‘अनौपचारिक खर्चों’ के लिए तैयार हो जाते हैं।
पार्षद ने भी कुछ नहीं किया:
जब शास्त्री मार्केट प्रोजेक्ट में हो रही देरी को लेकर ठेकेदार ने स्थानीय पार्षद से संपर्क किया, तो उन्होंने भी इस मुद्दे पर कोई सहायता नहीं की। इससे यह स्पष्ट हो रहा है कि न केवल प्रशासनिक स्तर पर लापरवाही है, बल्कि जन प्रतिनिधि भी समस्याओं से मुंह मोड़ रहे हैं।
एग्रीमेंट में भी देरी का आलम:
गुरप्रीत सिंह का आरोप है कि जिस एग्रीमेंट पर 15 दिनों में साइन हो जाना चाहिए था, उसे एक साल बाद खुद निगम में जाकर ‘साइन ’ करवाना पड़ा। यह दर्शाता है कि नगर निगम के अधिकारी समय की पाबंदी और जिम्मेदारी को लेकर कितने गंभीर हैं।
चंडीगढ़ प्रशासन को मिल रही प्राथमिकता:
निगम की कार्यप्रणाली से तंग आ चुके कई ठेकेदार अब सीधे चंडीगढ़ प्रशासन के टेंडर में भाग ले रहे हैं। उनका कहना है कि वहा पर न केवल नियमों के अनुसार पेमेंट मिलती है, बल्कि अफसरों का रवैया भी पेशेवर है। यह नगर निगम के लिए एक गंभीर चेतावनी होनी चाहिए।
वो दिन याद है जब टॉयलेट बनकर पूरा हुआ था… कमिश्नर आए, रिबन कटा, फोटो खिंची, लोग तालियाँ बजा रहे थे… पर उस दिन मेरे मन में एक ही सवाल था – क्या मुझे इस काम की मेहनताना भी मिलेगा? मैंने समझा चलो, अफसर खुद आकर रिबन काट रहे हैं – अब पेमेंट तो मिलेगी… पर आठ महीने हो गए, बस तारीखें मिलती हैं।” फोन करके थक गया हूँ… कभी क्लर्क के पीछे, कभी इंजीनियर के। सबको याद दिलाना पड़ता है कि मैं बस अपना हक मांग रहा हूँ।