चंडीगढ़ में स्थित ऑर्म्ड फोर्स ट्रिब्यूनल (AFT) एक अजीब स्थिति में फंस गया है। ट्रिब्यूनल ने खुद एक रिटायर्ड सैनिक को सेवा लाभ देने का आदेश दिया था, लेकिन सरकार ने उस आदेश को मानने से इनकार कर दिया। इसके बाद ट्रिब्यूनल ने रक्षा मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी को अदालत की अवमानना का दोषी ठहराते हुए उसके खिलाफ कार्रवाई शुरू कर दी। लेकिन इसी बीच पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने उस कार्रवाई पर रोक लगा दी, जिससे ट्रिब्यूनल असमंजस में पड़ गया है कि अब वह क्या करे।
यह पूरा मामला हरियाणा के रहने वाले मिलाप चंद नामक व्यक्ति से जुड़ा है। उन्होंने फरवरी 2020 में AFT में एक याचिका दायर की थी, जिसमें कहा गया कि उन्हें उनके सेवा से जुड़े लाभ नहीं मिल रहे हैं। लंबी सुनवाई के बाद AFT ने उनके पक्ष में फैसला सुनाते हुए सरकार को आदेश दिया कि उन्हें उनके बकाया लाभ दिए जाएं। लेकिन सरकार ने इस आदेश पर कोई अमल नहीं किया।
कई साल बीत जाने के बाद भी जब आदेश लागू नहीं हुआ, तो मिलाप चंद ने फिर से AFT में एक अर्जी लगाई। उन्होंने गुहार लगाई कि ट्रिब्यूनल खुद अपने पुराने आदेश को लागू करवाए। सरकार की ओर से इस पर कुछ कारण बताए गए, लेकिन कोर्ट ने उन्हें नकारते हुए कहा कि सरकार ने जानबूझकर आदेश को नजरअंदाज किया है।
इसके बाद AFT ने रक्षा मंत्रालय के अधीन आने वाले पूर्व सैनिक कल्याण विभाग (DESW) के सचिव को अदालत की अवमानना का दोषी ठहरा दिया। ट्रिब्यूनल ने यहां तक कह दिया कि वह खुद कोर्ट में पेश होकर बताएं कि उनके खिलाफ क्या सजा दी जाए। लेकिन जब यह कार्रवाई चल रही थी, तो उस अधिकारी ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटा दिया।
9 मई 2025 को हाईकोर्ट ने AFT में चल रही अवमानना की कार्यवाही पर रोक लगा दी। हालांकि, ट्रिब्यूनल ने यह साफ किया कि हाईकोर्ट ने केवल अवमानना प्रक्रिया पर रोक लगाई है, मूल आदेश को चुनौती देने वाली याचिका पर कोई रोक नहीं है।
अब AFT की पीठ, जिसमें न्यायमूर्ति सुधीर मित्तल और लेफ्टिनेंट जनरल रवेन्द्र पाल सिंह शामिल हैं, ने खुद को एक दुविधा में पाया है। उनका कहना है कि उनके पास आदेश लागू करवाने और अवमानना पर सजा देने का कानूनी अधिकार है, लेकिन जब भी वे उस अधिकार का प्रयोग करते हैं, हाईकोर्ट की ओर से रोक लग जाती है। इसलिए अब ट्रिब्यूनल ने हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और संबंधित खंडपीठ से स्पष्ट सलाह मांगी है कि आगे उसे क्या करना चाहिए।
यह मामला न्यायिक प्रक्रियाओं और संवैधानिक अधिकारों की टकराहट का एक उदाहरण बन गया है, जहां एक पक्ष को न्याय दिलाने की कोशिश में खुद अदालतें असमंजस का शिकार हो रही हैं।